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गृहमंत्री के बयान से हिन्दी को राजभाषा बनाने पर छिड़ी बहस, सामने आया पक्ष-विपक्ष

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लखनऊ : केन्द्रीय गृहमंत्री अमित शाह के हिन्दी भाषा पर दिए गए बयान के बाद पूरे देश में इसके समर्थन और विरोध में प्रतिक्रिया देखने को मिली है।

कई लोगों का ऐसा भी मानना है कि भाजपा तात्कालिक राजनीतिक लाभ के लिए उत्तर और दक्षिण में राजभाषा के मुद्दे को चर्चा में ला रही है।

इस पूरे प्रकरण में उत्तर प्रदेश के पूर्व विधानसभा अध्यक्ष व वरिष्ठ भाजपा नेता हृदय नारायण दीक्षित कहते हैं कि जो बात गृहमंत्री अमित शाह द्वारा कही गयी थी, उसमें यह था कि राज्य परस्पर वार्तालाप के लिए अंग्रेजी की जगह हिन्दी भाषा का इस्तेमाल करें, बाकी सब अपनी-अपनी भाषाओं में काम करें।

उन्होंने आगे कहा, हिन्दी को लेकर कुछ राज्यों में विरोध दिखाई पड़ता है। देश के सामाजिक कार्यकर्ताओं व अन्य विद्वानों को लोगों को यह बताना चाहिए कि हिन्दी राजभाषा है, इसका किसी के साथ कोई प्रतिस्पर्धा नहीं है।

राज्यों की क्षेत्रीय भाषाओं का हिन्दी के साथ कोई झगड़ा नहीं है। हिन्दी और भारतीय भाषाओं का परिवार एक है।

किसी भी क्षेत्र में हिन्दी थोपने का कोई मतलब नहीं

पूर्व विधानसभाध्यक्ष ने यह भी कहा कि भारत की संविधान सभा में जब राजभाषा का प्रस्ताव पेश हुआ था, तब उसके प्रस्तावक अयंगर ने कहा था कि हम हिन्दी को राजभाषा बनाना चाहते हैं, लेकिन हिन्दी अभी कमजोर है।

उस समय नेहरू जी ने कहा था कि अग्रेंजी विजेता भाषा थी इसलिए उसे स्वीकार कर रहे हैं लेकिन हिन्दी हमारी अपनी भाषा है उसे आगे बढ़ाएंगे।

यह संविधान सभा में लिखा है। उन्होंने आगे कहा, हिन्दी राजभाषा है। उसके प्रचार प्रसार के सारे प्रयत्न करना किसी भी राष्ट्र और राज्य का दायित्व है।

किसी भी क्षेत्र में हिन्दी थोपने का कोई मतलब नहीं है। राजभाषा प्रयोग के सुझाव को जो सांस्कृतिक आतंकवाद कहते हैं तो उनके ज्ञान पर दया आ सकती है।

कांग्रेस के प्रवक्ता सुधांशु बाजपेई कहते हैं कि हिन्दी कोरे भाषण या लफ्फाजी से समृद्ध नहीं होगी, थोपने से इसे बढ़ावा नहीं मिलेगा, इसके लिए हिन्दी को रोजगार से जोड़ना होगा, ज्ञान के भण्डार से जोड़ना होगा, यह एक व्यवहारिक सलाह है।

उन्होंने आगे कहा कि हमारे भारत में विभिन्न बोलियां है, भाषाएं हैं जो हमारी पहचान है। इस गुलदस्ते को खत्म करने की बात मुझे नहीं उचित लगती।

भोजन को लेकर पहले से भाजपा विवाद कर ही रही है, आज वो भाषा को लेकर कह रहे हैं, कल कहेंगे कि सभी कुर्ता धोती पहनें। इस देश में सबसे सर्वोपरि है संविधान।

अगर संविधान ने हमें अभिव्यक्ति, भोजन, परिधान की स्वतंत्रता दी है तो भाजपा को इन विषयों पर जनता को लड़वाने की राजनीति नहीं करनी चाहिए।

एक भाषा का वर्चस्व दूसरे पर लादा नही जा सकता

सपा के राष्ट्रीय प्रवक्ता अली खान कहते हैं कि हिंदी केवल 43 प्रतिशत लोगों की मातृभाषा है। ऐसे में इसे सभी देशवासियों पर जबरदस्ती थोपना नाइंसाफी है।

भारत की सभी भाषाएं बराबर हैं। देश और संविधान की आत्मा संघवाद है। असल में यह विवाद भाषा को लेकर नहीं है, बल्कि भाजपा इसके जरिए अपनी चुनावी रणनीति तैयार कर रही है।

राजनीति को भाषा, धर्म, संस्कृति के इर्द-गिर्द खड़ा करके भाजपा विभाजन सुनिश्चित करती है, जो अनेकता में एकता की भारत की पहचान के खिलाफ है।

वहीं प्रसिद्ध साहित्यकार व आलोचक वीरेन्द्र यादव कहते हैं कि गृहमंत्री का बयान यह है गैर हिन्दी भाषी क्षेत्र के लोग जो संवाद करें वह हिन्दी में करें।

दक्षिण भारत या गैर हिन्दी भाषी प्रांतों में इसकी प्रतिक्रिया होना स्वाभाविक है, क्योंकि अगर कोई मलयालम भाषी किसी तमिल भाषी से मलयालम या तमिल में बात कर सकता है तो यह उस पर हिन्दी को लादने जैसा है, भाषाई स्वतंत्रता पर यह अनावश्यक अतिक्रमण है।

उनका बयान गैर जरूरी है। भारत जैसा देश जो उपमहाद्वीपीय विस्तार लिए हुए है, उसमें किसी भी एक भाषा का वर्चस्व दूसरे पर लादा जाएगा तो यह देश की एकता और अखंडता के लिए उचित नहीं है, इससे बचा जाना चाहिए।

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