पटना: बिहार में विधानसभा चुनाव सम्पन्न हो गया। परिणाम भी आ गया। अब सरकार बनने का इंतजार है। सबकुछ सहज तरीके से हुआ। वोटर घर से निकले, बूथ पर जाकर वोट दिया और लौट आए। मगर दो दशक पहले ऐसा नहीं था।
तब बिहार में चुनाव कराना युद्ध जीतने से कम नहीं था। चुनाव की घोषणा होते ही वाहन स्वामी अपनी गाड़ियां घरों में बंद कर देते थे, क्योंकि प्रशासन तब निजी गाड़ियां चुनाव के लिए जब्त कर लेता था।
माल लदे ट्रक और बस तक जब्त कर लिए जाते थे। चुनाव के दिन कर्फ्यू की सी स्थिति रहती थी। जगह-जगह चेक पोस्ट होती थीं। सिर्फ मतदाता को आने-जाने की छूट होती थी। सारी दुकानें बंद करा दी जाती थीं।
जिन सरकारी सेवकों की चुनाव में ड्यूटी लगती थी, उनके घर में मातम छा जाता था। क्या पता वे सुरक्षित लौटेंगे या नहीं। चुनाव ड्यूटी से अपना नाम कटवाने के लिए कर्मचारी फर्जी मेडिकल सर्टिफिकेट लगाते थे।
इसका कारण यह था कि तब चुनाव में हिंसा होती थी। इस बार प्रचार के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी इसका जिक्र किया। चुनाव के अगले दिन के अखबार बूथ कैप्चिंग, गोलीबारी, मारपीट और हत्या की खबरों से अट जाते थे।
हर चुनाव में 25-50 लोग मारे जाते या गंभीर रूप से घायल होते थे।
ये वो समय था जब बैलेट पेपर से वोट पड़ते थे। कोई पहचान पत्र भी नहीं होता था। सिर्फ पार्टी द्वारा जारी पर्ची लेकर लोग वोट देने जाते थे। ऐसे में खूब बोगस वोटिंग होती थी। स्त्री के नाम पर पुरुष और पुरुष के नाम पर स्त्री वोट करती थी।
कई बार तो बच्चे भी लाइन में लग वोट दे देते थे। अगर चुनाव कराने आये कर्मचारी या पोलिंग एजेंट इसे रोकने की कोशिश करते तो उनसे मारपीट की जाती।
तब चुनाव आयोग भी इतना सशक्त नहीं था। वह आमतौर पर सत्तारूढ़ दल की ओर झुका रहता था।
उम्मीदवार भाड़े पर गुंडों को बुलाते थे। यह गुंडे हथियारों से लैस होकर विरोधी पक्ष के प्रभाववाले क्षेत्र में जाकर बूथ कब्जा करते या बम धमाके से मतदाताओं को आतंकित कर भागने के लिए बाध्य कर देते थे।
कई बार विरोधी गिरोहों में भिड़ंत हो जाती तो लाशें बिछ जाती थीं। इसके चपेट में मतदान कर्मी और वोटर भी आ जाते थे। बेगूसराय, मोकामा, बड़हिया से गुंडों के गिरोह पूरे बिहार में जाते थे। मुंगेर से हथियारों की सप्लाई होती थी।
उस समय मतगणना में भी जम कर धांधली होती थी। निर्वाची पदाधिकारी यानी डीएम ऊपर के आदेश पर जीत को हार में और हार को जीत में बदलने की ताकत रखते थे। तब न तो टीवी चैनल थे न सोशल मीडिया। इसलिए धांधली छिप जाती थी।
टीएन शेषन के मुख्य निर्वाचन आयुक्त बनने के बाद दृश्य बदलने शुरू हुए और चुनाव में निष्पक्षता आई।
उन्होंने मतदाता पहचान पत्र को अनिवार्य कर दिया। उनके बाद चुनाव आयोग के अधिकारी केजे राव ने सुधार प्रक्रिया को और आगे बढ़ाया। फिर वोटिंग मशीन (ईवीएम) आई। टीवी चैनलों की संख्या बढ़ी।
इससे चुनाव प्रक्रिया में क्रांतिकारी बदलाव आया।
बूथ लूट और हिंसा की घटनाओं में आश्चर्यजनक तरीके से कमी आई है। पूरे चुनाव में इक्का-दुक्का छिटपुट हिंसा की खबरें ही आती हैं।
उसी दौर में किसी ने पटना हाईकोर्ट में निजी गाड़ियों को जब्त करने से रोकने के लिए पीआईएल दायर की गई थी। उस याचिका का परिणाम यह हुआ कि निजी गाड़ियों को चुनाव कार्य के लिए पकड़े जाने पर हाईकोर्ट ने रोक लगा दी।
तब वाहन मालिकों ने राहत की सांस ली थी।
पटना के तत्कालीन जिलाधिकारी जितेंद्र सिन्हा (वो कौन सा वर्ष था यह याद नहीं है) ने चुनाव के दिन कर्फ्यू वाली स्थिति से राजधानीवासियों को मुक्ति दिलाई।
उन्होंने न सिर्फ दुकान खुली रखने की छूट दी बल्कि वाहनों के परिचालन पर भी रोक नहीं लगाई। इससे कहीं कोई गड़बड़ी नहीं हुई। उल्टा माहौल तनावमुक्त और खुशनुमा बना। इससे मतदान प्रतिशत भी बढ़ा।
बाद में यह प्रयोग अन्य जिलों में भी किया गया। बैलेट पेपर की वजह से उस समय काउंटिंग तीन-तीन, चार- चार दिनों तक चलती थी। जनादेश की प्रतीक्षा में सारा काम ठप रहता था।
अब ईवीएम के कारण वोटिंग और काउंटिंग दोनों बहुत आसान हो गए हैं।
लेकिन कुछ नेताओं और पार्टियों को यह व्यवस्था रास नहीं आ रही। वे पुराने दिन लौटाना चाहते हैं। वे फिर बैलेट पेपर से वोटिंग कराने की रट हर चुनाव में लगाते हैं।
स्वच्छ और निष्पक्ष चुनाव उन्हें रास नहीं आ रहा। वे फिर से गुंडों के सहारे सत्ता पाना चाहते हैं।
इसलिए ईवीएम पर लगातार सवाल उठाए जा रहे हैं। बिहार में हुए इस चुनाव में भी राहुल गांधी ने ईवीएम को एमवीएम यानी मोदी वोटिंग मशीन करार दिया है।
मजेदार बात यह है कि चुनाव आयोग जब पार्टियों को ईवीएम की गड़बड़ी बताने के लिए आमंत्रित करता है तो ये नेता वहां नहीं जाते। नई पीढ़ी को यह जानना जरूरी है कि कैसे उनके बुजुर्गों ने गुंडों का आतंक झेल कर, अपनी जान जोखिम में डाल कर भी लोकतंत्र को जिंदा रखा है।