नई दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार को दो हफ्तों का समय देते हुए भारतीय दंड संहिता की धारा 124ए (राजद्रोह) की संवैधानिक वैधता को चुनौती देने वाली याचिका की सुनवाई दो सप्ताह के लिए स्थगित की दी।
मामले में अगली सुनवाई 27 जुलाई को होगी। धारा 124ए के तहत राज्य या केंद्र सरकार के खिलाफ आलोचनात्मक टिप्पणियों को नफरत फैलाने वाला अवमानना वाला बताकर उनके खिलाफ कार्रवाई की जा रही है।
धारा 124ए के तहत अधिकतम आजीवन कारावास तक की सजा हो सकती है।
1962 में सुप्रीम कोर्ट ने केदारनाथ यादव बनाम बिहार मामले में इस कानून को संवैधानिक मान्यता दी थी।
इस साल 30 अप्रैल को शीर्ष कोर्ट ने केंद्र सरकार को नोटिस जारी किया था।
यह नोटिस मणिपुर और छत्तीसगढ़ में काम कर रहे दो पत्रकारों, किशोरचंद्र वांगखेमचा और कन्हैया लाल शुक्ला की याचिका पर दिया था।
इन दोनों ने सुप्रीम कोर्ट से 1962 के फैसले का पुनरीक्षण करने की अपील की थी।
इनके मुताबिक इस कानून की आड़ में सरकार संविधान के अनुच्छेद 19(1)(ए) के तहत मिले अभिव्यक्ति की आजादी के मौलिक अधिकार का हनन कर रही है।
कोर्ट ने इस मामले में अटॉर्नी जनरल केके वेणुगोपाल की मदद भी मांगी है।
सोमवार को जस्टिस यूयू ललित और अजय रस्तोगी की बेंच ने सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता को दो हफ्ते का समय दिया।
उनसे कहा गया है कि अगली सुनवाई से पहले वह केंद्र के पक्ष में हलफनाम प्रस्तुत करे। कोर्ट ने मामले में अटॉर्नी जनरल से भी लिखित में पक्ष रखने को कहा है।
सुप्रीम कोर्ट ने सोमवार को केंद्र सरकार को दो हफ्तों का समय देते हुए भारतीय दंड संहिता की धारा 124ए (राजद्रोह) की संवैधानिक वैधता को चुनौती देने वाली याचिका की सुनवाई दो सप्ताह के लिए स्थगित की दी। मामले में अगली सुनवाई 27 जुलाई को होगी।
धारा 124ए के तहत राज्य या केंद्र सरकार के खिलाफ आलोचनात्मक टिप्पणियों को नफरत फैलाने वाला अवमानना वाला बताकर उनके खिलाफ कार्रवाई की जा रही है।
धारा 124ए के तहत अधिकतम आजीवन कारावास तक की सजा हो सकती है। 1962 में सुप्रीम कोर्ट ने केदारनाथ यादव बनाम बिहार मामले में इस कानून को संवैधानिक मान्यता दी थी।
इस साल 30 अप्रैल को शीर्ष कोर्ट ने केंद्र सरकार को नोटिस जारी किया था।
यह नोटिस मणिपुर और छत्तीसगढ़ में काम कर रहे दो पत्रकारों, किशोरचंद्र वांगखेमचा और कन्हैया लाल शुक्ला की याचिका पर दिया था।
इन दोनों ने सुप्रीम कोर्ट से 1962 के फैसले का पुनरीक्षण करने की अपील की थी।
इनके मुताबिक इस कानून की आड़ में सरकार संविधान के अनुच्छेद 19(1)(ए) के तहत मिले अभिव्यक्ति की आजादी के मौलिक अधिकार का हनन कर रही है।
कोर्ट ने इस मामले में अटॉर्नी जनरल केके वेणुगोपाल की मदद भी मांगी है। सोमवार को जस्टिस यूयू ललित और अजय रस्तोगी की बेंच ने सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता को दो हफ्ते का समय दिया।
उनसे कहा गया है कि अगली सुनवाई से पहले वह केंद्र के पक्ष में हलफनाम प्रस्तुत करे।
कोर्ट ने मामले में अटॉर्नी जनरल से भी लिखित में पक्ष रखने को कहा है। और न्यूजीलैंड ने राजद्रोह कानूनों को रद्द कर दिया है।
जबकि आस्ट्रेलिया ने 2010 में राजद्रोह शब्द की जगह हिंसात्मक अपराध का आग्रह जैसे शब्द इस्तेमाल करने शुरू कर दिए।
अमेरिका और कनाडा में राजद्रोह से जुड़े नियम हैं, लेकिन वहां भी फ्री स्पीच पर कोई पाबंदी नहीं है।
वहीं दो पत्रकारों द्वारा पेश की गई मूल याचिका पर वरिष्ठ अधिवक्ता कोविन गोंजाल्वेज ने पक्ष रखा।
इस याचिका में कहा गया है कि हो सकता है कि 1962 में धारा 124ए को संवैधानिक बताते हुए सुप्रीम कोर्ट सही रही हो। लेकिन हालिया समय में अब यह धारा गैरलोकतांत्रिक और गैरजरूरी हो चुकी है।