बीजिंग: बहुत-से विकसित देशों की सरकारों ने जरूरत से ज्यादा वैक्सीन जमा करके रख ली है। यह और कुछ नहीं बल्कि वैक्सीन राष्ट्रवाद है।
जब संकट का समय हो और दुनिया के बाकी लोगों की कीमत पर सरकारें सिर्फ अपने देश के लोगों को प्राथमिकता दें तो इसे गलत ही कहा जाएगा।
यह खतरे की भयावहता और इसे दूर करने में वैक्सीन के महत्व की वजह से खासतौर पर बहस का मुद्दा बन गया है। वैक्सीन की जरूरत तो दुनिया के बहुत सारे देशों को है।
ऐसे माहौल में इन देशों की सरकारों को इस बात को नैतिक जिम्मेदारी समझनी होगी। यह दुखद है कि अंतर्राष्ट्रीय तौर पर इसे लेकर कोई करार नहीं हुआ है।
लेकिन यह देखते हुए कि कोरोना दुनिया के किसी भी देश में फैल रहा है, व्यावहारिक रूप से इसको फैलने से रोकने के लिए वैक्सीन समानता बहुत जरूरी है।
वैक्सीन की समानता के सिद्धांत का मतलब है कि दुनियाभर के लोगों के लिए बराबर वैक्सीन मुहैया हो सकें। फिलहाल यह नहीं हो रहा है।
अमेरिका की 35 प्रतिशत आबादी को पूरी तरह वैक्सीन लग चुकी है।
वैश्विक पटल पर देखें तो यह आंकड़ा महज 2.3 फीसदी है और अफ्रीका में 1 फीसदी से भी कम है, जो कि बहुत बड़ी गैर-बराबरी है।
फिलहाल, इस वक्त सबसे जरूरी है कि वैक्सीन बनाने की क्षमता बढ़ाई जाए और विकासशील देशों तक वैक्सीन पहुंचाई जाए। यह समान वितरण होना बहुत जरूरी है।
यह पेटेंट और वैक्सीन तकनीक धाराओं धारकों द्वारा दूसरे निमार्ताओं को वैक्सीन बनाने की छूट देने के बाद होगा।
यह भी जरूरी है कि निर्माण और वितरण की तकनीक के ट्रांसफर में भी मदद की जाए। जीवन बचाने वाले बदलाव बहुत तेजी से किये जाने चाहिए।
इसमें क्षमता बढ़ाना, सहायक तकनीक को मजबूत करना, विकासशील देशों में वैक्सीन बनाने में तेजी लाने के लिए उन्हें काम सिखाना आदि शामिल हैं।
इस काम में अमेरिका, भारत, चीन जैसे प्रमुख देशों की सरकारों को मध्स्थ की भूमिका निभानी होगी।
वे एक उचित कीमत पर वैक्सीन गरीब देशों और स्वयंसेवी संस्थाओं को मुहैया करवाए।
इसे वैक्सीन उत्पादन त्रिकोण कह सकते हैं और इसे यूगांडा में कुछ साल पहले सफलतापूर्वक लागू किया जा चुका है।