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… और इस तरह CJI की टिप्पणी पर जस्टिस बीवी नागरत्ना ने जताई थी आपत्ति…

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Justice Biwi Nagarathna had Expressed Objection to CJI’s remarks: सुप्रीम कोर्ट में जस्टिस बीवी नागरत्ना (Biwi Nagarathna) ने चीफ जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ के जस्टिस कृष्णा अय्यर के सिद्धांत पर की टिप्पणी पर आपत्ति जताई है।

यह मामला अनुच्छेद 39 (B) की व्याख्या से जुड़ा हुआ है। जस्टिस नागरत्ना ने कहा कि CJI की टिप्पणी न तो उचित थी और न ही वांछित। जस्टिस सुधांशु धूलिया (Sudhanshu Dhulia) ने भी जस्टिस अय्यर की मार्क्सवादी व्याख्या की आलोचना करने वाले बहुमत के फैसले पर असहमति जताई है।

सुप्रीम कोर्ट में अनुच्छेद 39 (बी) की व्याख्या को लेकर एक मामले में जस्टिस बी.वी. नागरत्ना ने CJI डी.वाई. चंद्रचूड़ द्वारा जस्टिस कृष्णा अय्यर के सिद्धांत पर की गई टिप्पणी पर असहमति जताई है।

यह मामला 1978 में रंगनाथ रेड्डी मामले में जस्टिस कृष्णा अय्यर ने इस अनुच्छेद पर अल्पसंख्यक दृष्टिकोण रखा था। बाद में 1982 में संजीव कोक मामले (Sanjeev Coke Case) में पांच जजों की पीठ ने जस्टिस अय्यर के अल्पसंख्यक दृष्टिकोण को अपनाया था। पीठ में जस्टिस नागरत्ना के पिता जस्टिस ई.एस. वेंकटरामैया भी शामिल थे, जो 1989 में भारत के मुख्य न्यायाधीश बने थे।

हाल ही में चीफ जस्टिस चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली सात जजों की पीठ ने रंगनाथ रेड्डी और संजीव कोक मामलों में दिए फैसलों की समीक्षा की। अपने फैसले में चीफ जस्टिस Chandrachur ने कहा कि रंगनाथ रेड्डी मामले में बहुमत के फैसले ने अनुच्छेद 39 (बी) की व्याख्या पर जस्टिस कृष्णा अय्यर द्वारा की गई टिप्पणियों से खुद को अलग कर लिया था। इस प्रकार संजीव कोक में इस अदालत की एक समान पीठ ने न्यायिक अनुशासन का उल्लंघन किया और अल्पसंख्यक राय पर भरोसा करके गलती की।

जस्टिस नागरत्ना ने उठाये सवाल 

जस्टिस नागरत्ना ने चीफ जस्टिस चंद्रचूड़ की इस टिप्पणी पर आपत्ति जताई है। उन्होंने कहा कि रंगनाथ रेड्डी, संजीव कोक, अबू कवूर बाई और बसन्तीबाई के मामलों में फैसले ने विचार के लिए उठने वाले मुद्दों को सही ढंग से तय किया और उनके गुण-दोष पर किसी हस्तक्षेप की जरुरत नहीं है। फैसलों में न्यायाधीशों की टिप्पणियों को वर्तमान समय में किसी आलोचना की जरुरत नहीं होगी। न ही यह उचित है और न ही वांछित।

जस्टिस नागरत्ना ने आगे सवाल उठाते हुए कहा कि क्या 1991 से भारत में अपनाए गए उदारीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरण के सिद्धांत, अर्थव्यवस्था में सुधार और पिछले तीन दशकों में लाए गए ढांचागत बदलाव, भारत की स्वतंत्रता प्राप्ति के तुरंत बाद के दशकों में अपनाई गई सामाजिक-आर्थिक नीतियों के विरुद्ध एक आईना पकड़ सकते हैं? क्या हम पूर्व न्यायाधीशों को एक विशेष व्याख्यात्मक परिणाम तक पहुंचने के लिए दंडित कर सकते हैं?

जस्टिस नागरत्ना ने आगे कहा कि यह चिंता का विषय है कि कैसे भविष्य के न्यायिक बंधु, अतीत के भाइयों के निर्णयों को देखते हैं, संभवत उस समय को भूलकर जब उन्होंने अपने कर्तव्यों का निर्वहन किया था और उस समय के दौरान राज्य द्वारा अपनाई गई सामाजिक-आर्थिक नीतियां और संवैधानिक संस्कृति का हिस्सा बनी थी।

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