खूंटी: नौ दिनों तक श्रद्धा,भक्ति और उल्लास के साथ मां दुर्गा की पूजा अर्चना के बाद शनिवार को माता रानी और अन्य प्रतिमाओं कों नम आंखों से विदाई दी गयी।
जिला मुख्यालय सहित अन्य जगहों पर स्थापित प्रतिमाओं को नदियों, तालाबोें और अन्य जलाशयों में विसर्जित कर दिया गया।
हालांकि कइ प्रतिमाओं का विसर्जन शुक्रवार कों ही कर दिया गया। कोरोना गाइडलाइन के कारण इस बार बार अन्य वर्षों की तुलना में तामझाम काफी कम रहा।
शहर की प्रतिामाओं को चौधरी तालाब, साव तालाब और राजा तालाब में विसर्जित किया गया। प्रतिमा विसर्जन के समय श्रद्धालुओं की आंखें डबडबा गयी थीं।
देवी मंडप तोरपा के पूजा पंडाल में सुहागिन महिलाओं ने मां दुर्गा, मां लक्ष्मी, मां शारदे की प्रतिमाओं पर माथे और मांग पर सिंदूर लगाया। खोंईचा भराई की रस्म अदाकर विदा देने साथ मां को अगले वर्ष फिर आने का निमंत्रण दिया।
मां का चरण छूकर श्रद्धालुओं ने उन्हें नमन किया। पूजा के दौरान किसी तरह की भूलचूक के लिए क्षमा याचना की। इसके बाद उपस्थित महिलाओं ने एक दूसरे की मांग पर लंबी सिंदूर लगाया। ढाक बाजे पर महिलाओं ने पारंपरिक नृत्य भी किया।
पुरोहित अनिल मिश्र बताते हैं कि धार्मिक मान्यताओं के अनुसार मां दुर्गा हर साल एक बार मायके आती हैं। दशमी के दिन मायके से विदा होकर ससुराल चली जाती हैं। हिन्दू धर्म में सिंदूर भरकर बेटी को विदा किया जाता है।
सिंदूर सुहाग की निशानी है। मां को सिंदूर भर कर सुहागिन महिलाएं अखंड सुहाग की कामना करती हैं। दोपहर बाद पूजा अर्चना करने के बाद सार्वजनिक दुर्गा पूजा समिति, देवी मंडप हिल चैक व तोरपा डाकघर के पास स्थापित प्रतिमाओं को समिति के सदस्य लेकर बांसटोली तालाब पहुंचे।
यहां विधि—विधान के साथ पूजा अर्चना, क्षमा याचना के बाद प्रतिमाओं का विसर्जन किया गया। तपकरा, डोड़मा, मरचा, कुमांग, सुंदारी जरियागढ़, सहित अन्य गांवों में स्थापित प्रतिमाओं का भी विसर्जन कर दिया गया।
कंधे पर उठाकर प्रतिमाओं को तालाब तक ले गये आदिवासी समुदाय के लोग
जिला मुख्यालय के चौधरी मुहल्ला में स्थापित प्रतिमाओं का विसर्जन पारंपरिक ढंग से किया गया। आदिवासी समुदाय के लोग अपने कंधे पर ढोकर जुलूस की शक्ल में चौधरी तालाब तक ले गये, जहां माता रानी और अन्य देवी देवताओं को विदाई दी गयी और अगले वर्ष फिर से विराजने का निमंत्रण दिया।
ज्ञात हो कि आदिवासी और हरिजन समुदाय के लोग महासप्तमी के दिन कंधे पर उठाकर ही पंडाल तक लाते हैं और कंधे पर उठाकर ही प्रतिमाओं को विदाई दी जाती है। सैकड़ों वर्षों से आदिवासी इस परंपरा का निर्वाह करते आ रहे हैं।