नई दिल्ली: दिल्ली की सीमा पर अपनी मांगों को लेकर आंदोलन कर रहे किसानों की तमाम मांगों में एक मांग पराली जलाने को लेकर भी थी, हालांकि उनकी यह मांग मान ली गयी है।
इसका मतलब यह हुआ कि किसानों को अपने खेतों में पराली जलाने की अनुमति होगी।
थोड़ी देर के लिए यह मान भी लिया जाये कि पराली जलाने से किसानों का ‘Waste Management’ हो जाता है, लेकिन यह समझ नहीं आता कि किसान अपने ही पांव पर कुल्हाड़ी क्यों मार रहे हैं।
सबसे बड़ी बात किसान अपने इस काम से शर्मिंदा भी नहीं है। उनके इस कार्य से आज खेतों को थोड़ा नुकसान हो रहा होगा, लेकिन भविष्य में इसका भयंकर दुष्परिणाम देखने को मिलेगा जब खेत पूरी तरह से अपनी उर्वरता खो देंगे।
खेतों में पराली जलाने के होते हैं बड़े दुष्परिणाम
खेतों में पराली जलाने के कई दुष्परिणाम हैं। ऐसा करने से एक तो जलस्तर पर विपरीत प्रभाव पड़ता है। फिर मिट्टी को उपजाऊ बनाने वाले सूक्ष्म जंतु नष्ट हो जाते हैं।
पुआल के जलाने से पशुओं को चारा नहीं मिल पाता है। खेतों में अनाज गिरा होता है जिसे पशु व पक्षी चुग कर अपना पेट भरते थे, वह भी जल जाता है। खेतों व खरपतवारों में रहने वाले छोटे कीड़े-मकोड़े जलकर मर जाते हैं।
अवशेष को खेतों में जलाने से जहां निकलने वाला कार्बन युक्त धुआं वातावरण के प्रदूषण में बढ़ोतरी कर रहा है, वहीं इससे खेत के जीवांश तत्वों को काफी नुकसान पहुंच रहा है।
कृषि वैज्ञानिकों की मानें तो खेतों में पुआल जलाने पर मिट्टी में नाइट्रोजन की कमी हो जाती है। जब एक टन पुआल जलता है तब 1460 किलोग्राम कार्बन डाई आक्साइड, 60 किलोग्राम कार्बन मोनो ऑक्साइड, 2 किलोग्राम सल्फर डाइऑक्साइड गैस निकलता है।
पराली जलाना ही अंतिम उपाय नहीं
सवाल यह है कि क्या पराली जलाना ही अंतिम उपाय है। अगर वाकई में ऐसा होता तो हरियाणों को करीब एक हजार किसान पराली न जलाकर दूसरे और बेहतर उपाय क्यों अपना रहे हैं।
पराली जलाने की सबसे बड़ी समस्या पंजाब और हरियाणा में ही है। लेकिन हरियाणा के ही करीब एक हजार किसान न सिर्फ पराली जलाने से बच रहे हैं, बल्कि खेतों के अपशिष्ट को खाद में बदलकर खेतों को और उर्वरा बना दे रहे हैं।
हरियाणा के ये किसान पराली को जलाने की बजाय खेत की मिट्टी में ही खपा रहे हैं। पराली को खेत में ही खपाने के लिए यह किसान जीवा-अमृत खाद और वेस्ट डिकंपोजर को हथियार के तौर पर इस्तेमाल रहे हैं।
इससे पराली गलने में कम समय लगता है और धरती के सूक्ष्म जीव भी नष्ट नहीं होते। अगर अन्य किसान भी जैविक खाद का इस्तेमाल करना शुरू कर दें तो पराली जलाने की आवश्यकता ही नहीं रहेगी।
बता दें, धान की पराली का तना प्लास्टिक की तरह होता है, जो न तो कृषि यंत्रों से जल्दी कटता है और न ही जमीन में आसानी से गलता है। यही कारण है कि किसान इसे आग से नष्ट करते हैं।
लेकिन जैविक खेती करने वाले किसान पराली को आग से नष्ट नहीं करते, बल्कि जीवा-अमृत और वेस्ट डिकंपोजर खाद का छिड़काव करते हैं।
इससे खेत में सूक्ष्म जीव को बढ़ावा मिलता है और धान की पराली जल्दी गल जाती है। ऐसे में खेत की उर्वरता शक्ति भी कम नहीं होती। खेत में फसल की अच्छी पैदावार भी ली जा सकती है।
क्या एक एकड़ खेत पर 100 रुपये भी खर्च नहीं करना चाहते किसान?
जीवा-अमृत गोबर, मिट्टी, गोमूत्र, बेसन में 2 किलो गुड़ मिलाकर तैयार किया जाता है। गोबर, मिट्टी व गोमूत्र को किसान के घर में ही उपलब्ध हो जाता है। गुड़ बाजार से खरीदना पड़ता है।
गुड़ भी ऐसा, जो खाने लायक न रहा हो तब भी चलेगा। इस सामग्री पर केवल 100 रुपये खर्च होते है। एक एकड़ खेत के लिए 10 किलो देशी गाय का गोबर, 5 किलो मिट्टी, दो माह पुराना 5 लीटर गोमूत्र, 2 किलो गुड़ और 2 किलो बेसन के घोल को 10 दिन तक सुबह-शाम फेटना पड़ता है। 10वें दिन घोल जीवा-अमृत खाद बदल जाता है।
वेस्ट डि-कंपोजर की एक शीशी की कीमत मात्र 20 रुपये है। इसका घोल भी किसान खुद की तैयार कर सकते हैं। इसके बनाने की विधि 200 लीटर पानी, 2 किलो गुड़, में एक शीशी डिकंपोजर की डालनी है।
डिकंपोजर का घोल 3-4 दिन तक पानी की टंकी में रखने से तैयार हो जाता है। इसका छिड़काव भी अगर धान की पराली पर किया जाए तो पराली जल्दी गल सकती है।
इसलिए सिर्फ अपने निजी लाभों (स्वार्थों) के लिए आन्दोलन करना अगर जरूरी है तो फिर अपने, अपनी संततियों और देश के भविष्य के लिए भी एक आन्दोलन खड़ा करने की भी जरूरत है।
क्योंकि खेत रहेंगे, खेतों में उर्वरता रहेगी तभी फसलें होंगी और फसलें होंती तभी जीवन भी चलेगा, दूषित हवा तो सिर्फ हमारी सांसें रोकने का काम करेगी।