रांची: जिस दौर मेंमंदिर-मस्जिद के विवाद की खबरें अक्सर सुर्खियों में होती हैं, उस दौर में मो. नौशाद नामक एक शख्स के अनूठे किरदार की मिसालें दी जा रही हैं।
झारखंड के दुमका जिला अंतर्गत रानीश्वर ब्लॉक निवासी इस शख्स ने करीब 40 लाख रुपये खर्च कर पार्थसारथी यानी श्रीकृष्ण का सुंदर मंदिर बनवाया है और अब हज पर जाने की तैयारी कर रहे हैं।
वह कहते हैं, मंदिर बनाना मेरा संकल्प था और हज मेरा फर्ज है। इंशाअल्लाह यह फर्ज भी जल्द पूरा होगा।
एक इस्लाम धर्मावलंबी के मन में अचानक मंदिर बनवाने का ख्याल कैसे आया? मो. नौशाद से जब यह सवाल पूछा गया तो उन्होंने इसके पीछे एक दिलचस्प घटनाक्रम का उल्लेख किया। तीन साल पुरानी बात है।
2019 के जनवरी के मो. नौशाद घूमने के खयाल से पश्चिम बंगाल के मायापुर गये थे। यही वो जगह है, जहां 16वीं सदी में भक्ति आंदोलन के प्रणेता निमाई यानी चैतन्य महाप्रभु का जन्म हुआ था।
मो. नौशाद बताते हैं कि वह मायापुर स्थित मंदिर परिसर में ही ठहरे थे। 8 जनवरी की रात उन्होंने स्वप्न देखा कि निमाई संन्यासी उनका हाथ पकड़कर कह रहे हैं कि मैं तो तुम्हारे गांव महेशबथान में ही रहता हूं।
तुम वहीं मेरे आराध्य पार्थसारथी का मंदिर बनाओ। मो. नौशाद ने 9 जनवरी को गांव लौटने के बाद घरवालों को यह बात बताई और अगले ही रोज से मंदिर निर्माण के लिए नींव खुदाई का काम शुरू कर दिया।
तकरीबन तीन साल बाद मंदिर पूरी तरह बनकर तैयार हो गया और बीते 14 फरवरी को यहां प्राण प्रतिष्ठा का अनुष्ठान धूमधाम से पूरा हुआ।
मंदिर के निर्माण में करीब 35 से 40 लाख रुपये खर्च हुए और मो. नौशाद ने इसमें किसी से कोई आर्थिक सहयोग नहीं लिया।
ऐसा क्यों? इस सवाल पर वह कहते हैं, अल्लाह की मेहरबानी से खेती भरपूर है और अपना कारोबार भी अच्छा चलता है।
मैंने तय किया कि जब मंदिर बनाने का संकल्प मेरा है और मैं सक्षम भी हूं तो किसी से क्यों पैसे मांगूं। 55 वर्षीय मो. नौशाद रानीश्वर प्रखंड के उप प्रमुख भी हैं और इस नाते उनका सामाजिक सरोकार बड़ा है। वह बताते हैं कि पत्नी, बेटे, बेटी और परिवार से लेकर समाज के सभी लोगों ने उनका हौसला बढ़ाया।
जिस महेशबथान नामक गांव में पार्थसारथी यानी अर्जुन के सारथी बने रथ पर सवार श्रीकृष्ण की प्रतिमा स्थापित कर मंदिर का निर्माण कराया गया है, वहां हिंदू-मुस्लिम दोनों समुदाय के लोगों की मिली-जुली आबादी है।
लोग लंबे वक्त से भाईचारे के साथ रहते आये हैं। गांव में कभी धर्म-संप्रदाय को लेकर विवाद नहीं हुआ। एक-दूसरे के उत्सवों में लोग समान रूप से भाग लेते हैं।
गांव के लोग बताते हैं कि यह इलाका पहले हेतमपुर इस्टेट के अंतर्गत आता था। लगभग 300 साल यहां के जमींदार पूति महाराज ने यहां पार्थसारथी पूजा शुरू करायी थी।
यहां हर साल माघ पूर्णिमा पर बड़ा मेला लगता था। तब यह इलाका जंगलमहल नाम से जाना जाता था। जमींदारी खत्म हुई तो मेला बंद हो गया, लेकिन उसकी यादें लोगों के जेहन में बनी रही। 1990 में गांव के कादिर शेख, अबुल शेख, लियाकत शेख सहित अन्य लोगों ने मिलकर भाईचारे की पुरानी परंपरा को आगे बढ़ाते हुए सालाना पार्थसारथी पूजा और मेले की फिर से शुरूआत कराई।
मो. नौशाद भी शुरू से ही इसमें बढ़-चढ़कर भागीदारी निभाते रहे। तब से यहां हर साल टेंट-कनात में प्रतिमा स्थापित कर उत्सव का सिलसिला चलता रहा।
अब मो. नौशाद ने सुंदर मंदिर का निर्माण करा दिया है और यहां स्थायी तौर पर भगवान पार्थसारथी विराजमान हो गये हैं।
बीते 14 फरवरी को इस मंदिर की प्राण प्रतिष्ठा के अनुष्ठान में पश्चिम बंगाल से 108 ब्राह्मणों की टोली आई। गाजे-बाजे के साथ भव्य शोभायात्रा निकली और हवन-पूजन के बीच विधिवत मंदिर का लोकार्पण हुआ।
हिंदू-मुसलमान दोनों धर्मों के हजारों लोगों ने इस उत्सव में भाग लिया और यह हमेशा के लिए यादगार मौका बन गया।
मो. नौशाद का नाम अब पूरे इलाके में दूर-दूर तक लोग जानने लगे हैं। स्थानीय पत्रकार गौतम चटर्जी कहते हैं, मो. नौशाद इलाके में वर्षों से कायम मजहबी भाईचारे के सबसे बड़े राजदूत बन गये हैं।