नई दिल्ली : सुप्रीम कोर्ट (Supreme Court) बुधवार को अपने 1998 के फैसले पर फिर से विचार करने पर सहमत हो गया, जिसमें सांसदों को संसद या राज्य विधानसभाओं में भाषण (Speeches in Assemblies) देने या वोट देने के लिए रिश्वत लेने पर आपराधिक मुकदमे से छूट दी गई थी।
सीजेआई डी.वाई. चंद्रचूड़ (CJI D.Y. Chandrachur) की अध्यक्षता वाली 5 न्यायाधीशों की संविधान पीठ में शामिल न्यायमूर्ति ए.एस. बोपन्ना, एम.एम. सुंदरेश, जे.बी. पारदीवाला और मनोज मिश्रा ने कहा कि सांसदों और विधायकों को बोलने की आजादी की गारंटी देने वाले संवैधानिक प्रावधानों का उद्देश्य, प्रथम दृष्टया, आपराधिक कानून के उल्लंघन के लिए आपराधिक कार्यवाही शुरू करने से छूट प्रदान करना प्रतीत नहीं होता।
पीठ ने कहा…
पीठ ने कहा, “अनुच्छेद 105(2) और अनुच्छेद 194(2) का उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि संसद और राज्य विधानमंडलों के सदस्य उस मामले में होने वाले परिणामों के डर के बिना स्वतंत्रता के माहौल में कर्तव्यों का पालन करने में सक्षम हों। सदन के पटल पर बोलें या अपने वोट देने के अधिकार का प्रयोग करें।”
इसमें कहा गया है कि इन प्रावधानों का उद्देश्य स्पष्ट रूप से विधायिका के सदस्यों को उन व्यक्तियों के रूप में अलग करना नहीं है जो भूमि के सामान्य आपराधिक कानून के आवेदन से प्रतिरक्षा के संदर्भ में उच्च विशेषाधिकार प्राप्त करते हैं जो भूमि के नागरिकों के पास नहीं है।
वर्ष 998 के अपने फैसले में पी.वी. नरसिम्हा राव बनाम CBI मामले में शीर्ष अदालत ने फैसला सुनाया था कि सांसदों को, संविधान के अनुच्छेद 105 की पृष्ठभूमि के खिलाफ सदन में उनके भाषण और वोटों (Speeches and Votes) के संबंध में आपराधिक मुकदमा चलाने से छूट प्राप्त है।
आपराधिक आरोपों को रद्द करने की मांग
संविधान का अनुच्छेद 105 संसद सदस्य को “संसद या उसकी किसी समिति में उनके द्वारा कही गई किसी बात या दिए गए वोट के संबंध में” छूट प्रदान करता है। इसी तरह की छूट राज्य विधानमंडल के सदस्यों को अनुच्छेद 194(2) द्वारा प्रदान की गई है।
साल 2014 में झारखंड मुक्ति मोर्चा (JMM) की सदस्य सीता सोरेन ने 2012 के राज्यसभा चुनावों में एक विशेष उम्मीदवार के पक्ष में मतदान करने के लिए कथित तौर पर रिश्वत लेने के लिए उनके खिलाफ स्थापित आपराधिक आरोपों को रद्द करने की मांग करते हुए सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया।
साल 2019 में भारत के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई (Justice Ranjan Gogoi) की अध्यक्षता वाली 3 न्यायाधीशों की पीठ ने उठने वाले प्रश्न के व्यापक प्रभाव, उठाए गए संदेह और मुद्दे के व्यापक प्रभाव को ध्यान में रखते हुए मामले को एक बड़ी पीठ के पास विचार के लिए भेज दिया।