खूंटी: लोक आस्था और सूर्योपासना के महापर्व छठ (Mahaparv Chhath) की शुरूआत कब हुई, इसका कोई प्रामाणिक प्रसंग तो नहीं मिलता, लेकिन जिस गति से यह महापर्व बिहार से होकर पूरे विश्व में तेजी से फैला है, इसका उदाहरण और कहीं नहीं मिलता।
अब तो भारत ही नहीं विदेशों में भी छठ महापर्व बड़े पैमाने पर मनाया जाने लगा है। यह व्रत स्वच्छता और आस्था (Cleanliness And Faith) का प्रतीक है। इसमें न पंडे पुरोहितों की जरूरत पड़ती है और न ही किसी आडंबर की।
छठ व्रती कहते हैं कि अन्य पर्व त्योहारों में तो ईश्वर की मूर्ति या प्रतीक की पूजा अर्चना की जाती है, लेकिन छठ महाव्रत ऐसा अनुष्ठान है, जहां भक्त अपने आराध्य के साक्षात दर्शन कर उनकी आराधना करता है।
अपने आराध्य के साक्षात दर्शन कर आराधना का महापर्व छठ है। दीपावली के ठीक चार दिनों के बाद कार्तिक शुक्ल पक्ष की चतुर्थी तिथि से चार दिवसीय महापर्व (Four Day Festival) की शुरूआत हो जाती है और सप्तमी को उदयाचल सूर्य को दूसरा अर्घ्य देने के साथ इसका समापन हो जाता है।
सूर्य को अर्घ्य देने की कथा का वर्णन Mahabharata and Ramayana (महाभारत और रामायाण) में भी मिलता है। पौराणिक कथा के अनुसार अपना राजपाट गंवा चुके पांडवों के कष्ट को देखकर द्रौपदी ने भगवान श्री कृष्ण की सलाह पर छठ व्रत का अनुष्ठान किया था।
कुंती को कर्ण जैसा महाबली पुत्र भी सूर्य की कृपा से ही मिला था। कर्ण ने ही जल में रहकर सूर्य को अर्घ्य देने की परंपरा की शुरूआत की थी। भगवान श्रीराम भी सूर्यवंशी राजा थे।
पंडित सदन गोपाल शर्मा बताते हैं कि बिहार में सबसे पहले सूर्य मंदिर की स्थापना द्वापर युग में भगवान श्रीकृष्ण (Lord Shri Krishna) के आदेश पर देवशिल्पी विश्वकर्मा ने औरंगाबाद जिले के देव नामक स्थान पर किया था, जो आज भी उसी तरह है, जैसा हजारों साल पहले था। पंडित जी ने कहा कि संभवतः उसी समय से बिहार में छठ की परंपरा शुरू हुई होगी।
28 से शुरू होगा चार दिवसीय महाव्रत
इस वर्ष 28 अक्टूबर को नहाय-खाय के साथ छठ महाव्रत की शुरूआत हो जायेगी 29 का खरना और 30 अक्टूबर को अस्ताचलगामी भगवान भास्कर (Lord Bhaskar) का पहला अर्ध्य दिया जायेगा।
31 अक्टूबर को उदीयमान सूर्य को दूसरा अर्ध्य देने के साथ ही व्रत का समापन हो जायेगा
सामूहिकता का प्रतीक है महापर्व
छठ के दौरान सामूहिकता और सामजिक एकता की ऐसी मिसाल किसी दूसरे पर्व त्योहारों में देखने को नहीं मिलती। न किसी के साथ भेदभाव है न जात-पात का भेद।
यहां मिलते हैं तो सिर्फ भगवान भास्कर के सच्चे भक्त। एक साथ समूह में जल में खड़े होकर भक्तों का समूह हर प्रकार के भेदभाव को मिटा देता है।
खूंटी के पुरोहित सुनील कुूमार मिश्रा कहते हैं कि भगवान सर्य की कृपा जितनी महलों पर पड़ती है, उतनी ही झोपड़ियों पर भी। इस पर्व में न कोई बड़ा होता है और न कोई छोटा। पंडित जी ने कहा कि यह व्रत समाज को एकसूत्र में बांधकर रखने का संदेश देता है।
आधुनिकता का प्रभाव
लोक आस्था के इस महापर्व में भी आधुनिकता का प्रभाव साफ दिखने लगा है। Marketism (बाजारवाद) के साथ इस पर्व का स्वरूप भी बदलते लगा है।
बांस की परंपरागत सूप की जागह लोग सोने, चांदी और पीतल के सूप का प्रयोग छठ में करने लगे हैं। पहले लोग गन्ना, नींबू , केला, सिंघाड़ा, मटर, अदरख, आदि का प्रयाग पूजा में करते थे, लेकिन अब काजू-बादाम के साथ कई तरह की मिठाइयां आ गयी हैं।